बुधवार, 1 सितंबर 2010

मीडिया की जड़ तक को दीमक की तरह चाट चुके पूजीवाद के चलते लोकतंत्र का प्रहरी मिडिया हिंदी मीडिया (अंग्रजी की हालत अभी इतनी खराब नही है ) पूजीपतियों की रखैल बन गया और पत्रकारिता का रडरोवन रोने वाले कई दिग्गजों को इसकी भनक तक न लगी!! क्यों इन्होने हिंदी पत्रकारिता के पतन के प्रारम्भिक चरण में ही इसके खिलाफ आवाज उठाई. ओंर सभी जों आज आहत हैं हिंदी में पेड़ न्यूज़ को लेकर क्या उनका मानना है की अगर पेडी न्यूज़ को छोड़ दें तो बची हुयी हिंदी पत्रकारिता अंग्रेजी पत्रकारिता से लोहा ले सकती है? अगर नही तो पहले यह समझना होगा की आखिर वो कोन से कारण हैं की हिंदी का पत्रकार पेड़ न्यूज़ के पीछे भाग रहा है ? सबसे पहले मै यह स्पस्ट कर देना चाहता हूँ की पेड़ न्यूज़ का आइडिया मालिक का नही है बल्कि हमारे दिग्गज सम्पादकों का है . ये वही सम्पादक हैं जिन्होंने मालिकों को अपनी काबिलियत (जों; अब ऐड लाना रह गई है ) दिखने के लिए पत्रकारों के वेतन को न्यूनतम बनाये रखा है कम से कम मुंबई की हिंदी पत्रकारिता का तो यही हाल है .यहाँ स्पस्ट कर देना चाहता हूँ की अख़बार में करोड़ों रूपये लगाने वाले मालिकों को पत्रकारों के वेतन जों की अख़बार में लगने वाले खर्च का एक मामूली हिस्सा है से कोई खास फर्क नही पड़ता .अगर सम्पादक मालिक से कहे की पत्रकारों के वेतन बढ़ोतरी से अख़बार बेहतर हो सकेगा तो सायद करोड़ों खर्च करनेवाला अख़बार का मालिक लाखों के लिए अख़बार के स्तर से समझोता नहीं करेगा . यही बात अंग्रेजी के पत्रकारों को हिंदी के पत्रकारों से अलग बनती है .एक अन्ग्रेव्जी अख़बार के पत्रकार को इतना वेतन मिलता है की वह अपना आत्मसम्मान बनाये रखते हुए जीवन यापन कर सके .जबकि हिंदी अख़बार के पत्रकारों का वेतन अंग्रेजी अख़बार के चपरासियों से भी कम होता है. अब बात करतें हैं हिंदी पत्रकारिता की पतित पत्रकार पीढ़ी की . प्रभास जोशी का नाम पेड़ न्यूज़ के विरोध करने वालों की कतार में पहला माना जा रहा है . मै कभी समझ नही पाया की पत्रकारिता के पतन से आहत प्रभास जोशी जैसे दिग्गजों ने हिंदी पत्रकारिता में आर ही इस गिरावट की तरफ क्यों ध्यान दिया . क्यों उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में जातिवाद ,भाई - भतीजावाद ,चमचागिरी जैसे अन्य माध्यमों से जमा हो रहें कूड़े की तरफ ध्यान नही दिया . क्यों वे यह समझ न सके की पत्रकारिता के ग्लैमर से प्रभावित युवा को जब चपरासी के वेतन पर काम करना पड़ेगा तो अपनी पत्रकारिता की इज्जत बचाने के लिए, और घर चलाने के लिए उनमे से कई पेड़ न्यूज़ या अन्य विक्रीतियों को जन्म दे सकते हैं? उनके बाद आज हम कैसे उस पत्रकार से उमीद कर सकतें है की वहज लोकतंत्र का चोथा खम्बा बन कर बचे हुए तीनों खम्भों पर नजर रखते हुए आम लोगों को शोषण से बचाएगा जबकि वह खुद शोषण का शिकार है .हिंदी की पत्रिका आहा जिन्दगी में इंटरव्यू देते हुए पत्रकार कुलदीप नय्यर ने पेड़ न्यूज़ पर बोलते हुए कहा की हिंदी के बहुसंख्यक सम्पादक पढ़तें नही हैं यह हिंदी की मूल समस्या है ( उन्होंने जाने अनजाने सम्पादकों की योग्यता पर प्रश्न खड़ा किया हाँ वे अपवादों के लिए स्थान भी छोड़तें हैं ) कुल मिलाकर हिंदी में पेड़ न्यूज़ जैसी विक्रतियों के जन्म के जिम्मेदार हिंदी में जमा हुए कूड़े हैं फिर वो सम्पादक हों या पत्रकार. अरुण लाल

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